नष्ट न हो सरोज, नष्ट न हो
कुछ मिनट मुग्ध मैं
पर उसके बाद क्या
घर लौट कर एक कप चाय पी
होंठ जीभ और गले को
तर करने का बहाना खोजा
नष्ट न होने का उपाय
ब्रह्मचारी होता तो शायद
सड़क पर चलते समय शायद आँख मूँद लेता
किसी तरुणी की उभरी छाती देख
शिक्षक होता तो
निरीह लोभ की बकरियाँ हाँकता
आदर्श की डाँग उठा
पुजारी बनता तो शायद
अनसमझे मंत्र से झोना धुआँ में रूँध देता
निर्वाक ईश्वर को
पर मैं मवि, सर
नष्ट हुए बिना कविता गढ़ूँगा कैसे
नष्ट न होने का जो पारंपरिक
रास्ता पड़ा है निर्जन क्षितिज की ओर
उस रास्ते पर भी गया था एक बार
अचानक फिर एक दिन लगा, यह रास्ता
देवता का हो सकता, कवि का नहीं
नष्ट न होने के लिए मुझे आखिर
नष्ट होना पड़ेगा, सर !
जरा-सी महक के लिए स्वयं को जलाना होगा
धूप बत्ती की तरह
आप खड़े रहें
मैं चला इस पंक पोखर में
पद्म बन खिलूँगा
निश्चय एक दिन, सुब-सुबह
तब तक रहेंगे तो सर !|
पाल पर रहेंगे तो !